आस्थावनों के लिए महाभारत में वर्णित सब कुछ अक्षरशः सत्य है, जब कि शंकालुओं के लिए यह महाकाव्य कल्पना की उड़ान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति में सत्यता का निर्धारण कैसे हो? यहीं पर पुरातत्व-विज्ञान काम आता है।
सन् १९५१-५२ में प्रोफेसर बी बी लाल ने उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में गंगा के तट पर हस्तिनापुर से सम्बन्धित कई प्रमुख स्थलों की खुदाई की थी। यहाँ की निचली परतों में उन्हें ऐसी बस्ती का पता चला जो इस प्रकार के पात्रों से परिलक्षित हो सकता है जिसे चित्रित भूरे पात्र की संज्ञा दी जाती है और जो ईसा-पूर्व ११०० से ८०० वर्षों तक का निर्धारित किया जाता है। तब से महाभारत से सम्बन्धित सभी स्थलों से ऐसी ही भूरे पात्र वाली संस्कृति की खोज हुई है जो इन सभी को एक सूत्र में बाँधती है।
तदनन्तर, खुदाई से यह भी पता चला कि गंगा की एक भयानक बाढ़ ने हस्तिनापुर के चित्रित भूरे पात्र वाली बस्ती को बहुत अंशों में नष्ट कर डाला था। पुरातत्व द्वारा प्रस्तुत इस प्रमाण की पुष्टि वायु पुराण के इस उल्लेख के द्वारा हो जाती है कि “जब हस्तिनापुर का नगर गंगा द्वारा बहजाएगा तो निचक्षु इसे छोड़ देगा और कौशाम्बी जाकर बस जाएगा“।
राजधानी को हस्तिनापुर से कौशाम्बी ले जाने की पुष्टि इस बात से भी होती है कि यहाँ (कौशाम्बी) की निचली परतों में उसी प्रकार के निकृष्ट भूरे पात्र मिलते हैं जो बाढ़ के ठीक पहले के हस्तिनापुर से मिलने लगे थे।
इस प्रकार, पुरातत्व तथा साहित्य दोनों के सम्मिलित प्रमाणों से यह भली-भाँति स्थापित हो जाता है कि महाभारत कपोल कल्पना नहीं है बल्कि ऐतिहासिक वास्तविकता पर आधारित है। साथ ही, यह भी सच है कि इस ग्रंथ का आकार मूल ८,८०० श्लोकों से वर्तमान १,००,००० श्लोकों तक ग्यारह गुणा बढ़ा है। ऐसी स्थिति में गेहूँ को इसके चोकर से अलग करना कठिन कार्य है। किन्तु इस कारण हमें मूल्यवान् गेहूँ को चोकर के साथ ही फेंक नहीं देना चाहिये।