एक ऐतिहासविद का दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है उस व्यक्ति से, जो इस घटना से, आत्मियता से जुड़ा हो। लाल किला देहली का ऐतिहासिक मुकदमा जो 1945 में हुआ था, उसके उत्तरजीवी आज केवल कर्नल • ढिल्लन ही हैं। इस पुस्तक में अंकित उनके अनुभवों ने भारतवर्ष की स्वतंत्रता में असाधारण रूप से योगदान दिया है।
आज़ाद हिन्द फौज (आई.एन.ए.) का प्रख्यात मुकदमा जो लाल किला देहली में 5 नवम्बर 1945 को शुरू हुआ था, उसके तीन अभियुक्तों में से एक अभियुक्त कर्नल ढिल्लन भी थे जिन पर तथा कथित राजद्रोह यानि सम्राट के विरूद्ध युद्ध करने का आरोप था। इस मुकदमें ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णायक मोड़ भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम को प्रदान किया। कर्नल ढिल्लन अपने दो साथियों के साथ भारतवर्ष की स्वतंत्रता के प्रतीक बन गये।
इस पुस्तक में कर्नल ढिल्लन ने अपने आज़ाद हिन्द फौज (आई.एन.ए.) के अनुभव एवं अपने मुकदमें की सुख-दुख भरी यादों का वर्णन किया है। लेखक के अपने विवरण में आज़ाद हिन्द फौज (आई.एन.ए.) का इतिहास नहीं वरन् जो घटनाऐं उनके साथ अपनी डियूटी के समय उनके पद के अनुरूप इस आन्दोलन में घटित हुई उनका वर्णन है। यह अधिकतर उनके कार्य का ऐतिहासिक विवरण है।
डॉ. जायस सी. लिब्रा के शब्दों में कर्नल ढिल्लन के संस्मरण, पाठकों को दर्शाते हैं, भारत की स्वतंत्रता के लिये उनके दृढ़ एवं स्थिर सिद्धान्तों, राष्ट्रभक्ती पूर्ण समर्पण, मुसिबतों के समय हिम्मत, विनोदी स्वभाव एवं ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में उनके मानवीय दृष्टिकोण का भारतीय स्वतंत्रता में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान।