भारतीय दुर्गों की मणिमेखला में यथार्थतः मोती समझा जाने वाला ग्वालियर दुर्ग अपनी संरचना, सुदृढ़ता, जल व्यवस्था, जैसी विशेषताओं के कारण अजेय समझा जाता था, जिससे प्रभावित होकर हूण शासक मिहिरकुल ने इसपर अपना अधिकार स्थापित किया। तदुपरान्त कन्नौजाधिपति यशोवर्मन के पुत्र आम ने यहाँ पर अपना दरबार लगाया था, तथा प्रतिहार शासकों के अंतर्गत मर्यादाधुर्य तथा कोट्टपाल की नियुक्ति हुई थी। कालान्तर में कच्छपघात, परवर्ती प्रतिहार, दिल्ली सल्तनत, सूरी, मुगल, तोमर, जाट, सिंधिया एवं अंग्रेज शासकों ने स्वयं अथवा अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन किया। इस दुर्ग का क्रमिक इतिहास जानने के कोत उपलब्ध हैं। भारत भूमि पर यह न केवल अपनी केन्द्रीय भौगोलिक अवस्थिति की वजह से सामरिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है, बल्कि तीर्थ के रूप मे अपनी पहचान, कला एवं शिल्प की बहुआयामी विशेषताओं, यथा दुर्ग स्थापत्य, जल व्यवस्था, मंदिरवास्तु, मूर्तिशिल्प एवं अन्य कारणों से बेमिसाल रहा है। प्रस्तुत पुस्तक इस दुर्ग के संपूर्ण इतिहास को समग्रता में समाहित किये हुए है, जिसमें भौगोलिक अवस्थिति, स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक का राजनैतिक इतिहास, दुर्ग का क्रमिक विकास, मंदिर स्थापत्य, मूर्तिशिल्प, दुर्ग एवं महल स्थापत्य, अभिलेख, साहित्य एवं भट्टारक परंपरा जैसे विषयों पर प्रकाश
डाला गया है। प्रथम बार दुर्ग के तीन सौ से अधिक पठनीय अभिलेखों के पाठ का संपादन इस पुस्तक में किया गया है। यहाँ तक कि अंग्रेजों के स्मारक लेखों का रोमन लिपि में दिया गया पाठ उस समय की वास्तविक स्थिति के ज्ञान के लिए उपयोगी है। विषय को बोधगम्य बनाने के लिए दिए गए अनेक छायाचित्र सुस्पष्ट हैं।